पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मदिन पर विशेष, बृजेश सती जी की कलम से

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मदिन पर विशेष

बृजेश सती, वरिष्ठ पत्रकार, देहरादून

Dehradun: 25 सितंबर का दिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को याद करने का दिन है। आज पंडित जी का जन्मदिवस है। दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व, कृतित्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अनुसांगिक संगठनों तक सीमित रहा है। लम्बे अंतराल के बाद भी समाज का एक बडा वर्ग उनकी दूददर्शिता, राजनीतिक आदर्श, सिद्धांत और अंत्योदय जैसे विचारों से रूबरू नही हो पाया। जब भी उनके नाम पर भाजपा शासित सरकारें किसी योजना, भवन या सार्वजनिक स्थल का नामकरण करती है तो इस पर सवाल खड़े होते हैं। जनमानस के बीच चर्चा का विषय होता कि आखिर दीनदयाल कौन हैं? इनका योगदान क्या है? निश्चित तौर से सवालों का उठना स्वभाविक है। क्योंकि दीनदयाल का जीवन दर्शन उनकी राजनीतिक यात्रा और सामाजिक कार्य समाज के बडे हिस्से तक पंहुच नही पाया।

सार्वजनिक जीवन में दीनदयाल का सन 1942 में प्रवेश हुआ। उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जनपद में जिला प्रचारक बनाया। वे उत्तर प्रदेश के पहले प्रचारक थे। हालांकि उनका संघ से संपर्क 1937 में हो गया था। लेकिन विधिवत रूप से वे 1942 में संघ से जुडे। उनकी राजनीतिक यात्रा सन् 1951 से शुरु हुई। जब तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने उन्हें राजनीतिक दायित्व सौंपा ।

उस दौर में एक अलग राजनीतिक दल के गठन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी थे। नेहरू से मतभेद के कारण वे 19 अप्रैल 1950 में अलग हो गए। जिस दिन डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया। उसी दिन दिल्ली के नागरिकों द्वारा उनका भव्य अभिनंदन किया गया। इसमें संघ से जुड़े हुए लोग भी शामिल हुए। गोलवलकर ने इस बीच नए दल की संभावनाओं को लेकर गंभीरता से प्रयास शुरू किया। नए राजनीतिक दल की नीतियों से संतुष्ट होने पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। भारतीय जनसंघ के नाम से नए दल की स्थापना की गई।

गोलवलकर ने संघ के जिन कार्यकर्ताओं को डॉक्टर मुखर्जी के सहयोग के लिए अधिकृत किया। उसमें लाला हंसराज, वसंतराव, धर्मवीर , प्रोफेसर बलराज मधोक व डॉक्टर भाई महावीर प्रमुख थे। इस बीच विभिन्न प्रदेशों में जनसंघ की स्थापना के लिए कार्यकर्ताओं को दायित्व दिया गया। इसमें उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय एवं नानाजी देशमुख, मध्य भारत में मनोहर राव , राजस्थान में सुंदर सिंह भंडारी तथा बिहार में ठाकुर प्रसाद आदि प्रमुख थे । इन कार्यकर्ताओं के सहयोग से सबसे पहले प्रांतीय स्तर पर दल की स्थापना का कार्य हुआ।

5 मई 1951 को कोलकाता में पीपुल्स पार्टी का गठन

5 मई 1951 को कोलकाता में पीपुल्स पार्टी के नाम से दल का गठन हुआ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को इसका अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। इसी तरह प्रांतीय स्तर पर भी इस दल का विस्तार किया गया। अलग-अलग प्रांतों में इस दल का गठन होने के बाद सभी प्रांतों के अध्यक्षों एवं मंत्रियों की बैठक 19 सितंबर 1951 को दिल्ली में हुई ।

भारतीय जनसंघ की स्थापना के लिए दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता एवं पदाधिकारियों की इच्छा थी कि इस दल का नेतृत्व डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी करें। इसके लिए 21 अक्टूबर 1951 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई सदस्य एवं राजनीतिक कार्यकर्ता डॉक्टर मुखर्जी से मिले। डॉक्टर मुखर्जी ने उनके आग्रह को स्वीकार करते हुए कहा कि आप मुझ पर बहुत बड़ा भार डाल रहे हैं। अपनी मातृभूमि की सेवा की भावना से में इस दायित्व को निभाने का भरसक प्रयास करूंगा। 21 अक्टूबर 1951 को नई दिल्ली में देश भर से जुटे कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय जनसंघ की स्थापना के समय डॉक्टर मुखर्जी के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं था। जिसकी राष्ट्रव्यापी छवि के साथ ही नेतृत्व क्षमता हो। मगर डॉक्टर मुखर्जी ने अल्प समय में पंडित दीनदयाल की संगठन क्षमता को पहचान लिया था । यही कारण कि दिसंबर 1952 के भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन में उनको जनसंघ के महामंत्री का दायित्व दिया गया । वे 1952 से लेकर 67 तक जन संघ के महामंत्री रहे। इस कालावधी में उन्होंने जनसंघ को सैद्धांतिक, संगठनात्मक तथा रचनात्मक तीनों ही स्तरों पर आगे बढ़ाने का प्रयास किया।

डॉक्टर मुखर्जी की मृत्यु के बाद जन संघ नेतृत्व में रिक्तता आ गई। इस दौरान अनिश्चितता का माहौल बना रहा। लेकिन संगठन स्तर पर उपाध्याय अपने कार्यों का एवं दायित्वों का निर्वहन करते रहे। वे 15 वर्षों तक जनसंघ के महामंत्री रहे। जबकि इस दौर में कई अध्यक्ष बदले गए। इससे साफ जाहिर होता है कि दीनदयाल उपाध्याय संगठन क्षमता और नेतृत्व क्षमता दोनों ही काफी असरदार रही।

दल को लेकर दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन बिल्कुल साफ था। वह जनसंघ को एक अलग तरह का दल बनाना चाहते थे। वह सिर्फ सत्ता पाने वाले लोगों का झुंड एकत्रित करना नहीं चाहते थे। बल्कि राजनीतिक दल का उपयोग राजनीति के लिए करना चाहते थे। उनका मत था कि सत्ता उनके हाथों में होनी चाहिए जो राजनीति का उपयोग राजनीति के लिए कर सकें।

लोकतंत्र की सफलता और अपने दल के हित के लिए अपना लक्ष्य बनाते थे। उनका मानना था कि अनाड़ी प्रतीत होने वाला सामान्य व्यक्ति ही , वास्तव में बुद्धिमान होता है। वे शूरों से भी अधिक शुर होता है । भारतीय जनसंघ ऐसे सामान्य जन का संगठन बने , यही उनकी धारणा थी । आदर्श कार्यकर्ताओं के लिए दो मुख्य अवधारणा उनके मन में थी। एक कार्यकर्ता निर्भरता पूर्वक काम करने वाला हो तथा दूसरा व लोक मित्र, लोक शिक्षक तथा लोगों का हितैषी हो।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अपने कार्यकर्ताओं के साथ कितना सरल और आत्मीय संबंध था। इसकी एक बानगी वर्ष 1967 की है। जब उनके जनसंघअध्यक्ष बनने के बाद लखनऊ में एक कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किया गया था। दोपहर में कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित होने के बाद दीनदयाल जब लखनऊ से वापस जा रहे थे तो अचानक उन्हें लखनऊ रेलवे स्टेशन पर उत्तर प्रदेश वर्तमान उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के 2 कार्यकर्ता रेलवे स्टेशन में चहलकदमी करते हुए दिखाई दिए। उन्होंने रेलवे कंपार्टमेंट की खिड़की से दोनों का नाम लेते हुए अपने पास बुलाया और उनकी कुशलक्षेम पूछी।

पंडित जी की कार्यशैली थी प्रभावशाली

कार्यकर्ता से मुखातिब होते हुए कहा कैलाश तुम लोगों के पास खाने की सामग्री नहीं होगी । मुझे कुछ कार्यकर्ता रात्रि का भोजन लेकर आए हुए हैं , इसलिए तुम इस भोजन को अपने साथ ले जाओ। क्योंकि मुझे कार्यकर्ता अगले स्टेशन पर भोजन ले आएंगे। तुम्हें स्वयं खरीद कर खाना होगा। उन्होंने बैग से अपनी पुरानी धोती निकालते हुए उसको फाड़ा और कार्यकर्ताओं द्वारा लाया गया भोजन उसमें बांधकर उनके हाथ में दे दिया। उन्होंने दूसरे कार्यकर्ता से कहा कि तुम्हारे घर में बच्चे होंगे और जब तुम घर वापस जाओगे तो वे तुमसे पूछेंगे कि लखनऊ से क्या लेकर आए। उन्होंने ₹10 उनके हाथ में देते हुए कहा इसकी रेवड़ी लेकर आओ और बच्चों को घर लेकर जाना।

यह एक छोटी सी घटना हो सकती है। लेकिन अपने कार्यकर्ताओं के प्रति उनका जो भाव था। वह इस घटना से समझा जा सकता है। इतने ऊंचे पद पर बैठा हुआ व्यक्ति अपने छोटे कार्यकर्ताओं के प्रति इतनी संवेदनशीलता रखता हो। शायद ये गुण दीनदयाल जैसे व्यक्तित्व में ही समाहित हो सकता है। वर्तमान संदर्भ में इस तरह का भाव दिखाई नहीं देता है।

वह संगठन के लिए एक अभिनव प्रयोग करना चाहते थे। उनका मत था कि कार्यकर्ताओं को जनता के साथ संपर्क रखने वाला एवं संवाद करने वाला नेता बनाना चाहिए। इन्हीं सिद्धांतों की बुनियाद पर जनसंघ को मजबूत दल के रूप में खड़ा करने का काम दीनदयाल उपाध्याय ने किया। उन्होंने वास्तविक अर्थ में नैतिकता और मूल्यों पर आधारित राजनीति को प्राथमिकता दी।

1963 में उत्तर प्रदेश में तीन स्थानों के लिए उपचुनाव हुए । इसमें अमरोहा से आचार्य कृपलानी, फर्रुखाबाद से डॉक्टर राम मनोहर या और जौनपुर से पंडित दीनदयाल उपाध्याय संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार बनाए गये। जौनपुर से दीनदयाल को लोकसभा उपचुनाव लड़ने के लिए उन्होंने विवश किया। इस उपचुनाव में आचार्य कृपलानी और डॉक्टर लोहिया विजय हुए और दीनदयाल उपाध्याय चुनाव हार गए। निसंदेह दीनदयाल उपाध्याय ये चुनाव हार गए मगर उन्होंने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

दीनदयाल ने एकात्म मानववाद को जिस तरह से समाज के सामने रखा है। वर्तमान परिपेक्ष में उस पर चिंतन किए जाने की आवश्यकता है। पंडित दीनदयाल ने दल बदल के संदर्भ में साफ कहा कि ये समस्या राजनीतिक संस्कृति की विकृति है। किंतु अनवरत रहने वाली प्रक्रिया बन गई है। उन्होंने इसे अनैतिकता पूर्वक आचरण माना और इसके गंभीर परिणामों के प्रति भी अगाह किया।

पंडित जी के जन्मदिन के मौके पर मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने दी श्रद्धांजलि

भारतीय जनता पार्टी विश्व की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी है। केंद्र में सत्तासीन होने के अलावा एक दर्जन राज्यों में दल की सरकार हैं। मगर इस सब के बावजूद दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक दर्शन और सोच, उनके परिश्रम और सिद्धांतों से पल्लवित और पुष्पित दल में कम दिखाई दे रहा है।

बृजेश सती जी की कलम से, वरिष्ठ पत्रकार, देहरादून

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