Chandrayaan-3 Landing Update: चांद के दक्षिण पर ही लैंडिंग क्यों चाहता है इसरो?
Chandrayaan-3 Landing Update: भारत दक्षिणी ध्रुव का अध्ययन करनेवाला पहला देश बनना चाहता है। चंद्रमा के इस हिस्से पर अभी तक कोई भी मिशन नहीं गया है।
भारत का चंद्र मिशन वर्तमान में तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए चांद के इलाके पर विक्रम लैंडर की सॉफ्ट लैंडिंग के लिए सही जगह ढूंढने का लक्ष्य बना रहा है। इसरो का मानना है कि अगर सब कुछ रहा तो 23 अगस्त की शाम 6 बजकर 47 मिनट पर विक्रम चांद पर लैंडिंग करेगा। इसरो की योजना है कि लैंडिंग की लाइव कवरेज शाम साढ़े पांच बजे ही शुरू हो जाएगी। पूरी दुनिया को भारत के इस मिशन के सफल होने का इंतजार है।
चांद के साउथ पोल पर ऐसा क्या खास है?
इसरो हमेशा से ही हर मिशन पर अलग-अलग चीजें करने की कोशिश करता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि साउथ पोल यानि दक्षिणी ध्रुव पर उचित मात्रा में पानी मिलने की संभावना है। चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में बड़े-बड़े गड्ढों के कारण काफी गहरे और स्थायी रूप से छाया वाले क्षेत्र नजर आते हैं। चांद की सतह पर अभी भी लगातार धूमकेतुओं और क्षुद्रग्रहों की बमबारी होती रहती है। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन्हीं में से कहीं पानी की संभावना नजर आती है।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि चांद के इस हिस्से में जमा बर्फ में बहुत सारा पानी होगा। एक ओर विशाल छायादार क्षेत्र है तो दूसरी ओर ढेर सारी चोटियां नजर आती हैं। ये चोटियां स्थायी रूप से सूर्य के प्रकाश में रहती हैं। इसलिए, भविष्य में यहां पर मानव कॉलोनी स्थापित करनी को कोशिश हो सकती है। चीन पहले से ही 2030 तक वहां मानव कॉलोनी स्थापित करने की सोच रहा है। चंद्रमा पर बहुत सारे कीमती खनिज भी उपलब्ध हैं। बहुमूल्य खनिजों में से एक हीलियम-3 है जो हमें प्रदूषण मुक्त बिजली उत्पन्न करने में मदद कर सकता है।
अमेरिका और चीन ने बनाया मिशन मून
चांद पर पहुंचने की चाह के चलते अगले दो वर्षों में कई देशों ने चंद्रमा पर पहुंचने के लिए मिशन तैयार किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दोनों ने दक्षिणी ध्रुव पर मिशन की योजना बनाई है।
चांद पर पानी की खोज कब कब हुई थी
चांद के प्रति वैज्ञानिकों की दिलचस्पी कई दशकों से चली आ रही है। 1960 के दशक की शुरुआत में, पहली अपोलो लैंडिंग से पहले वैज्ञानिकों नेअनुमान लगाया था कि चंद्रमा पर पानी मौजूद हो सकता है। 1960 के दशक के आखिर और 1970 के दशक की शुरुआत में अपोलो क्रू ने विश्लेषण के लिए लौटाए गए नमूने सूखे प्रतीत हुए। 2008 में, ब्राउन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने नई तकनीक के साथ उन चंद्र नमूनों का दोबारा निरीक्षण किया और ज्वालामुखीय कांच के छोटे मोतियों के अंदर हाइड्रोजन पाया। 2009 में, इसरो के चंद्रयान-1 जांच पर नासा के एक उपकरण ने चंद्रमा की सतह पर पानी का पता लगाया था। उसी साल नासा के एक अन्य जांच दल ने, जो दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचा था, चंद्रमा की सतह के नीचे पानी की बर्फ पाई की मौजूदगी की बात कही। नासा के पहले के मिशन, 1998 के लूनर प्रॉस्पेक्टर में इस बात के प्रमाण मिले थे कि पानी में बर्फ की सबसे अधिक सांद्रता दक्षिणी ध्रुव के छायादार गड्ढों में थी।